Supreme Court: सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक मामले पर सुनवाई करते हुए दृष्टिबाधित व्यक्तियों के न्यायिक सेवाओं में नियुक्त होने के अधिकार को बरकरार रखा है. साथ ही उच्चतम न्यायालय की ओर से कहा गया कि दिव्यांगता को बहिष्करण का आधार नहीं बनाया जा सकता.
सुप्रीम कोर्ट ने मध्य प्रदेश सरकार द्वारा निर्धारित उस नियम को असंवैधानिक घोषित करते हुए रद्द कर दिया, जिसके तहत ऐसी नियुक्तियों पर रोक लगाई गई थी. कोर्ट ने इस बात पर ज़ोर दिया कि दृष्टिबाधित उम्मीदवारों को न्यायिक सेवाओं से बाहर रखना उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है.
अदालत ने मामले पर सुनवाई करते हुए कहा कि किसी को भी सिर्फ़ विकलांगता के आधार पर न्यायाधीश के रूप में सेवा करने के अवसर से वंचित नहीं किया जा सकता. यह फ़ैसला जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की पीठ ने कई याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए सुनाया. जिसमें कुछ राज्यों में न्यायिक सेवाओं में ऐसे उम्मीदवारों को आरक्षण न दिए जाने से संबंधित एक स्वप्रेरणा मामला भी शामिल था. फ़ैसला सुनाते हुए जस्टिस महादेवन ने मामले के महत्व पर ज़ोर देते हुए कहा कि हमने इसे सबसे महत्वपूर्ण मामले के रूप में माना है. हमने संवैधानिक ढांचे और संस्थागत विकलांगता न्यायशास्त्र पर बात की है.
कोर्ट ने तर्क दिया कि न्यायिक सेवाओं में विकलांग व्यक्तियों को भेदभाव का सामना नहीं करना चाहिए और राज्य से समावेशी प्रणाली को बढ़ावा देने के लिए सकारात्मक कार्रवाई लागू करने का आग्रह किया. इसमें फैसले में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि किसी भी अभ्यर्थी को केवल विकलांगता के कारण ऐसे अवसर से वंचित नहीं किया जा सकता. ऐसा करना कानून के तोड़ने जैसा होगा.
भारत के अलग-अलग राज्यों में सरकारी और गैर सरकारी कई बड़े पदों पर दृष्टिबाधित और दिव्यांग व्यक्ति काम कर रहे हैं. ऐसे में यह कहना है कि किसी भी विकलांग उम्मीदवार को किसी खास पद की जिम्मेदारी नहीं दी जा सकती, यह गलत है. हां हालांकि ऐसे काम जिसमें दिमाग के बजाए शरीर की आवश्यकता होती है, ऐसे पदों पर विकलांगता का प्रकार देखा जाता है.