इस क़दर मुसलसल थीं शिद्दतें जुदाई की...अहमद फ़राज़ के दिल छू लेने वाले शेर
बिछड़े
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें...जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें
तकल्लुफ़
तुम तकल्लुफ़ को भी इख़्लास समझते हो फ़राज़...दोस्त होता नहीं हर हाथ मिलाने वाला
बिछड़ने
हुआ है तुझ से बिछड़ने के बाद ये मालूम...कि तू नहीं था तिरे साथ एक दुनिया थी
जुदाई
किस किस को बताएँगे जुदाई का सबब हम...तू मुझ से ख़फ़ा है तो ज़माने के लिए आ
बे-वफ़ा
इस से पहले कि बे-वफ़ा हो जाएँ...क्यूँ न ऐ दोस्त हम जुदा हो जाएँ
जुदा
उस को जुदा हुए भी ज़माना बहुत हुआ....अब क्या कहें ये क़िस्सा पुराना बहुत हुआ
शिद्दतें
इस क़दर मुसलसल थीं शिद्दतें जुदाई की...आज पहली बार उस से मैं ने बेवफ़ाई की
ज़माने
आज इक और बरस बीत गया उस के बग़ैर...जिस के होते हुए होते थे ज़माने मेरे
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