क्या मुझ से भी अज़ीज़ है तुम को दिए की लौ..पढ़ें तहज़ीब हाफ़ी के शेर..
वुसअत
आसमाँ और ज़मीं की वुसअत देख, मैं इधर भी हूँ और उधर भी हूँ
हम-सफ़र
मुझ पे कितने सानहे गुज़रे पर इन आँखों को क्या, मेरा दुख ये है कि मेरा हम-सफ़र रोता न था
ख़्वाब
नींद ऐसी कि रात कम पड़ जाए, ख़्वाब ऐसा कि मुँह खुला रह जाए
आईने
मेरी नक़लें उतारने लगा है, आईने का बताओ क्या किया जाए
आग तापता
कोई कमरे में आग तापता हो, कोई बारिश में भीगता रह जाए
फूल मिट्टी
मिरे हाथों से लग कर फूल मिट्टी हो रहे हैं, मिरी आँखों से दरिया देखना सहरा लगेगा
मज़ार
क्या मुझ से भी अज़ीज़ है तुम को दिए की लौ, फिर तो मेरा मज़ार बने और दिया जले
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