निसार मैं तेरी गलियों के ऐ वतन, कि जहां...पढ़िए फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के चुनिंदा शेर...
इंतजार
मरने के बाद भी मेरी आंखें खुली रहीं,आदत जो पड़ गई थी तेरे इंतजार की
शाम
दिल ना उम्मीद तो नहीं, नाकाम ही तो है, लंबी है गम की शाम, मगर शाम ही तो है।
पैबन्द
जिंदगी क्या किसी मुफलिस की कबा है, जिसमें हर घड़ी दर्द के पैबन्द लगे जाते हैं
आश्ना
आये तो यूं कि जैसे हमेशा थे मेहरबां,भूले तो यूं कि जैसे कभी आश्ना न थे
दस्तयाब
आदमियों से भरी है यह सारी दुनिया मगर,आदमी को आदमी होता नहीं दस्तयाब
निसार
निसार मैं तेरी गलियों के ऐ वतन, कि जहां, चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले
मुस्कराएं
जो गुज़र गई हैं रातें, उन्हें फिर जगा के लाएं, जो बिसर गई हैं बातें, उन्हें याद में बुलाएं, चलो फिर से दिल लगाएं, चलो फिर से मुस्कराएं
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