आँख उस की जो फ़ित्ना-बार उठी..पढ़ें हसरत मोहानी के शेर..
बहारें हम को भूलीं
बहारें हम को भूलीं याद इतना है कि गुलशन में, गरेबाँ चाक करने का भी इक हंगाम आया था
अहल-ए-शर्क़
समझे हैं अहल-ए-शर्क़ को शायद क़रीब-ए-मर्ग, मग़रिब के यूँ हैं जमा ये ज़ाग़ ओ ज़ग़न तमाम
अब बहार करे
क़फ़स में हो दिल-ए-बुलबुल शहीद-ए-जल्वा-ए-गुल, ख़िज़ाँ ने जो न किया था वो अब बहार करे
आख़िर तो क़द्र होगी
न हो अभी मगर आख़िर तो क़द्र होगी मिरी, खुलेगा हाल-ए-ग़ुलाम आप पर ग़ुलाम के बाद
तक़रीरें कहीं
बे-ज़बानी तर्जुमान-ए-शौक़ बेहद हो तो हो, वर्ना पेश-ए-यार काम आती है तक़रीरें कहीं
निगह-ए-यार
है वहाँ शान-ए-तग़ाफ़ुल को जफ़ा से भी गुरेज़, इल्तिफ़ात-ए-निगह-ए-यार कहाँ से लाऊँ
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