छेड़ नाहक़ न ऐ नसीम-ए-बहार...पढ़े हसरत मोहानी के शेर...
दुज़दीदा-निगाही
भूली नहीं दिल को तिरी दुज़दीदा-निगाही, पहलू में है कुछ कुछ ख़लिश-ए-तीर अभी तक
ख़्वाबों की ताबीरें कहीं
इल्तिफ़ात-ए-यार था इक ख़्वाब-ए-आग़ाज़-ए-वफ़ा, सच हुआ करती हैं इन ख़्वाबों की ताबीरें कहीं
सवाद-ए-वतन में था
ग़ुर्बत की सुब्ह में भी नहीं है वो रौशनी, जो रौशनी कि शाम-ए-सवाद-ए-वतन में था
ए-इज़हार कहाँ से लाऊँ
पुर्सिश-ए-हाल पे है ख़ातिर-ए-जानाँ माइल, जुरअत-ए-कोशिश-ए-इज़हार कहाँ से लाऊँ
मज़ाक़-ए-सुख़न से दूर
रानाई-ए-ख़याल को ठहरा दिया गुनाह, वाइज़ भी किस क़दर है मज़ाक़-ए-सुख़न से दूर
तुम भी हँसते हो मिरे हाल पे
ख़ंदा-ए-अहल-ए-जहाँ की मुझे पर्वा क्या है, तुम भी हँसते हो मिरे हाल पे रोना है यही
बादा ने पुर-नूर कर दिया
दिल को ख़याल-ए-यार ने मख़्मूर कर दिया, साग़र को रंग-ए-बादा ने पुर-नूर कर दिया
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