खुला है दर प तिरा इंतिज़ार जाता रहा...पढ़ें जावेद अख्तर के शेर..
उस दरीचे में भी
उस दरीचे में भी अब कोई नहीं और हम भी, सर झुकाए हुए चुप-चाप गुज़र जाते हैं
आगही से मिली है तन्हाई
आगही से मिली है तन्हाई, आ मिरी जान मुझ को धोका दे
किस तरह भूलूँ
मैं भूल जाऊँ तुम्हें अब यही मुनासिब है, मगर भुलाना भी चाहूँ तो किस तरह भूलूँ
ख़मोशी ने साज़ छेड़ा है
फिर ख़मोशी ने साज़ छेड़ा है, फिर ख़यालात ने ली अंगड़ाई
दीवार गल रही है
मैं क़त्ल तो हो गया तुम्हारी गली में लेकिन, मिरे लहू से तुम्हारी दीवार गल रही है
उम्मीद क्या ख़ुदा से
उस के बंदों को देख कर कहिए, हम को उम्मीद क्या ख़ुदा से रहे
वो ज़मीं एक सितम-गर
ख़ून से सींची है मैं ने जो ज़मीं मर मर के, वो ज़मीं एक सितम-गर ने कहा उस की है
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