घी मिस्री भी भेज कभी अख़बारों में...पढ़ें निदा फ़ाज़ली के शेर...
निशाँ नहीं मिलता
चराग़ जलते ही बीनाई बुझने लगती है, ख़ुद अपने घर में ही घर का निशाँ नहीं मिलता
बे-नाम ख़बर के हम हैं
गिनतियों में ही गिने जाते हैं हर दौर में हम, हर क़लमकार की बे-नाम ख़बर के हम हैं
क़ज़ा की क़तार में
मसरूफ़ गोरकन को भी शायद पता नहीं, वो ख़ुद खड़ा हुआ है क़ज़ा की क़तार में
चरवाहों की जागीरें हैं
हर जंगल की एक कहानी वो ही भेंट वही क़ुर्बानी, गूँगी बहरी सारी भेड़ें चरवाहों की जागीरें हैं
बिखर न जाऊँ में
मिरे बदन में खुले जंगलों की मिट्टी है, मुझे सँभाल के रखना बिखर न जाऊँ में
वहाँ नहीं मिलता
तमाम शहर में ऐसा नहीं ख़ुलूस न हो, जहाँ उमीद हो इस की वहाँ नहीं मिलता
सामने आरी कटारी क्या
ये काटे से नहीं कटते ये बाँटे से नहीं बटते, नदी के पानियों के सामने आरी कटारी क्या
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