ग़ैर मुमकिन है तिरे घर के गुलाबों का शुमार..पढ़ें परवीन शाकिर के शेर...


2024/02/07 23:33:12 IST

फ़िराक़ के पेचाक हो गए

    सूरज-दिमाग़ लोग भी अबलाग़-ए-फ़िक्र में, ज़ुल्फ़-ए-शब-ए-फ़िराक़ के पेचाक हो गए

मेहंदी की बाड़ उगाई हो

    गुलाबी पाँव मिरे चम्पई बनाने को, किसी ने सहन में मेहंदी की बाड़ उगाई हो

गुमनाम सिपाही की तरह

    मक़्तल-ए-वक़्त में ख़ामोश गवाही की तरह, दिल भी काम आया है गुमनाम सिपाही की तरह

इंतिख़ाब कर देगा

    इसी तरह से अगर चाहता रहा पैहम, सुख़न-वरी में मुझे इंतिख़ाब कर देगा

इंतिसाब कर देगा

    मिरी तरह से कोई है जो ज़िंदगी अपनी, तुम्हारी याद के नाम इंतिसाब कर देगा

हथेलियों की दुआ फूल बन के

    हथेलियों की दुआ फूल बन के आई हो, कभी तो रंग मिरे हाथ का हिनाई हो

हौज़ साफ़ भी न हुआ

    अजब नहीं है कि दिल पर जमी मिली काई, बहुत दिनों से तो ये हौज़ साफ़ भी न हुआ

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