पलट कर फिर यहीं आ जाएँगे हम....पढ़ें परवीन शाकिर के शेर...
सिर्फ़ इस तकब्बुर में
सिर्फ़ इस तकब्बुर में उस ने मुझ को जीता था, ज़िक्र हो न उस का भी कल को ना-रसाओं में
तन्हाई के डर से
ख़ुद अपने से मिलने का तो यारा न था मुझ में, मैं भीड़ में गुम हो गई तन्हाई के डर से
शब वही लेकिन सितारा
शब वही लेकिन सितारा और है, अब सफ़र का इस्तिआरा और है
जंग का हथियार
जंग का हथियार तय कुछ और था, तीर सीने में उतारा और है
बोझ उठाते हुए फिरती है
बोझ उठाते हुए फिरती है हमारा अब तक, ऐ ज़मीं माँ तिरी ये उम्र तो आराम की थी
तेरा घर और मेरा जंगल
तेरा घर और मेरा जंगल भीगता है साथ साथ, ऐसी बरसातें कि बादल भीगता है साथ साथ
ज़ख़्मों के हिसाबों की तरह
ग़ैर मुमकिन है तिरे घर के गुलाबों का शुमार, मेरे रिसते हुए ज़ख़्मों के हिसाबों की तरह
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