मज़ा चखा के ही माना हूँ मैं भी दुनिया को...पढ़ें राहत इंदौरी के शेर...
रोज़ पत्थर की हिमायत में
रोज़ पत्थर की हिमायत में ग़ज़ल लिखते हैं, रोज़ शीशों से कोई काम निकल पड़ता है
दुश्मनों में बस गया
मैं आ कर दुश्मनों में बस गया हूँ, यहाँ हमदर्द हैं दो-चार मेरे
इक मुलाक़ात का जादू
इक मुलाक़ात का जादू कि उतरता ही नहीं, तिरी ख़ुशबू मिरी चादर से नहीं जाती है
पीले फूल काले पड़ गए
शहर क्या देखें कि हर मंज़र में जाले पड़ गए, ऐसी गर्मी है कि पीले फूल काले पड़ गए
देखा लहू लहू हम थे
ख़याल था कि ये पथराव रोक दें चल कर, जो होश आया तो देखा लहू लहू हम थे
ज़िंदगी अज़ाब करूँ
मैं करवटों के नए ज़ाइक़े लिखूँ शब-भर, ये इश्क़ है तो कहाँ ज़िंदगी अज़ाब करूँ
काग़ज़ का बदन
ये हवाएँ उड़ न जाएँ ले के काग़ज़ का बदन, दोस्तो मुझ पर कोई पत्थर ज़रा भारी रखो
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