मैं उसे तुझ से मिला देता मगर दिल मेरे...पढ़ें सलीम कौसर के शेर...
धुआँ बुलाता है
ये आग लगने से पहले की बाज़-गश्त है जो, बुझाने वालों को अब तक धुआँ बुलाता है
ख़ल्वत में मिले हैं
कैसे हंगामा-ए-फ़ुर्सत में मिले हैं तुझ से, हम भरे शहर की ख़ल्वत में मिले हैं तुझ से
यहाँ ख़ुदा कोई और है
जो मिरी रियाज़त-ए-नीम-शब को सलीम सुब्ह न मिल सकी, तो फिर इस के मअनी तो ये हुए कि यहाँ ख़ुदा कोई और है
इक शख़्स के जाने से
तू ने देखा नहीं इक शख़्स के जाने से सलीम, इस भरे शहर की जो शक्ल हुई है मुझ में
उस की बशारत दूँगा
मैं ने जो लिख दिया वो ख़ुद है गवाही अपनी, जो नहीं लिक्खा अभी उस की बशारत दूँगा
जुदाई भी न होती
जुदाई भी न होती ज़िंदगी भी सहल हो जाती, जो हम इक दूसरे से मसअला तब्दील कर लेते
तिरे हुस्न की हैरत
एक तरफ़ तिरे हुस्न की हैरत एक तरफ़ दुनिया, और दुनिया में देर तलक ठहरा नहीं जा सकता
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