कमाल-ए-ज़ब्त को ख़ुद भी तो आज़माऊँगी...पढ़ें परवीन शाकिर के चुनिंदा शेर
उम्मीद
अब तो इस राह से वो शख़्स गुज़रता भी नहीं...अब किस उम्मीद पे दरवाज़े से झाँके कोई
मौसम
कुछ तो तिरे मौसम ही मुझे रास कम आए...और कुछ मिरी मिट्टी में बग़ावत भी बहुत थी
ख़ुश-बू
वो तो ख़ुश-बू है हवाओं में बिखर जाएगा...मसअला फूल का है फूल किधर जाएगा
दोस्त
दुश्मनों के साथ मेरे दोस्त भी आज़ाद हैं...देखना है खींचता है मुझ पे पहला तीर कौन
कमाल-ए-ज़ब्त
कमाल-ए-ज़ब्त को ख़ुद भी तो आज़माऊँगी...मैं अपने हाथ से उस की दुल्हन सजाऊँगी
ज़िंदगी
बहुत रोया वो हम को याद कर के...हमारी ज़िंदगी बरबाद कर के
एहसान
तेरी ख़ुश्बू का पता करती है...मुझ पे एहसान हवा करती है
रुस्वाई
अपनी रुस्वाई तिरे नाम का चर्चा देखूँ...इक ज़रा शेर कहूँ और मैं क्या क्या देखूँ
View More Web Stories