पढ़ें इश्क पर लिखे अल्लामा इक़बाल के चुनिंदा शेर...
जुरअत हुई क्यूँकर
उसे सुब्ह-ए-अज़ल इंकार की जुरअत हुई क्यूँकर, मुझे मालूम क्या वो राज़-दाँ तेरा है या मेरा
निगह बेबाक
यही ज़माना-ए-हाज़िर की काएनात है क्या, दिमाग़ रौशन ओ दिल तीरा ओ निगह बेबाक
बख़्शा कि पारा पारा नहीं
मिरे जुनूँ ने ज़माने को ख़ूब पहचाना, वो पैरहन मुझे बख़्शा कि पारा पारा नहीं
वही हीले हैं परवेज़ी
ज़माम-ए-कार अगर मज़दूर के हाथों में हो फिर क्या, तरीक़-ए-कोहकन में भी वही हीले हैं परवेज़ी
नज़र आए मिटा दो
सुल्तानी-ए-जम्हूर का आता है ज़माना, जो नक़्श-ए-कुहन तुम को नज़र आए मिटा दो
ख़ार-ए-सहरा
हैं उक़्दा-कुशा ये ख़ार-ए-सहरा, कम कर गिला-ए-बरहना-पाई
ख़दंग-ए-जस्ता है
ये है ख़ुलासा-ए-इल्म-ए-क़लंदरी कि हयात, ख़दंग-ए-जस्ता है लेकिन कमाँ से दूर नहीं
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