Urdu Shayari: मिरी अपनी और उस की आरज़ू में फ़र्क़ ये था ,मुझे बस वो उसे सारा ज़माना चाहिए था
जलील मानिकपूरी
होती कहाँ है दिल से जुदा दिल की आरज़ू, जाता कहाँ है शम्अ को परवाना छोड़ कर
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शाद आरफ़ी
कटती है आरज़ू के सहारे पे ज़िंदगी,कैसे कहूँ किसी की तमन्ना न चाहिए
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दाग़ देहलवी
ना-उमीदी बढ़ गई है इस क़दर,आरज़ू की आरज़ू होने लगी
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इमरान-उल-हक़ चौहान
ख़्वाब, उम्मीद, तमन्नाएँ, तअल्लुक़, रिश्ते, जान ले लेते हैं आख़िर ये सहारे सारे
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अख़्तर शीरानी
ग़म-ए-ज़माना ने मजबूर कर दिया वर्ना,ये आरज़ू थी कि बस तेरी आरज़ू करते
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अहमद फ़राज़
सब ख़्वाहिशें पूरी हों फ़राज़ ऐसा नहीं है,जैसे कई अशआर मुकम्मल नहीं होते
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हसरत मोहानी
हम क्या करें अगर न तिरी आरज़ू करें,दुनिया में और भी कोई तेरे सिवा है क्या
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