मरने के बाद भी मेरी आंखें खुली रहीं...पढ़ें फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के शेर..
निसार मैं तेरी गलियों
निसार मैं तेरी गलियों के ऐ वतन, कि जहां, चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले
शब-ए-ग़म गुज़ार के
दोनों जहान तेरी मुहब्बत में हार के, वो जा रहा है कोई शब-ए-ग़म गुज़ार के
हौसले पर्वरदिगार के
इक फ़ुर्सत-ए-गुनाह मिली वो भी चार दिन, देखे हैं हमने हौसले पर्वरदिगार के
तेरी याद से बेगाना कर दिया
दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया, तुझसे भी दिल-फ़रेब हैं ग़म रोज़गार के
भूले से मुस्कुरा तो दिए थे
भूले से मुस्कुरा तो दिए थे वो आज ‘फ़ैज़’, मत पूछ वलवले दिल-ए-ना-कर्दा-कार के
तेरे मुक़ाबिल से आए हैं
सब क़त्ल हो के तेरे मुक़ाबिल से आए हैं, हम लोग सुर्ख़-रू हैं कि मंज़िल से आए हैं
किस दिल से आए हैं
उठ कर तो आ गए हैं तिरी बज़्म से मगर, कुछ दिल ही जानता है कि किस दिल से आए हैं
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