क़बा-ए-ज़र्द पहन कर वो बज़्म में आया...पढ़ें मुनीर नियाज़ी के शेर..


2024/01/26 23:13:06 IST

ख़ुदा के सिवा

    मकान-ए-ज़र लब-ए-गोया हद-ए-सिपेह्र-ओ-ज़मीं, दिखाई देता है सब कुछ यहाँ ख़ुदा के सिवा

शफ़्फ़ाफ़

    कोयलें कूकीं बहुत दीवार-ए-गुलशन की तरफ़, चाँद दमका हौज़ के शफ़्फ़ाफ़ पानी में बहुत

बाब-ए-इल्तिजा

    ज़वाल-ए-अस्र है कूफ़े में और गदागर हैं, खुला नहीं कोई दर बाब-ए-इल्तिजा के सिवा

आहिस्ता

    बहुत ही सुस्त था मंज़र लहू के रंग लाने का, निशाँ आख़िर हुआ ये सुर्ख़-तर आहिस्ता आहिस्ता

सख़्ती-ए-दीवार

    हूँ मकाँ में बंद जैसे इम्तिहाँ में आदमी, सख़्ती-ए-दीवार-ओ-दर है झेलता जाता हूँ मैं

मकान-ए-ख़ाक

    चमक ज़र की उसे आख़िर मकान-ए-ख़ाक में लाई, बनाया साँप ने जिस्मों में घर आहिस्ता आहिस्ता

फ़क़त ख़ुश्बू

    दश्त-ए-बाराँ की हवा से फिर हरा सा हो गया, मैं फ़क़त ख़ुश्बू से उस की ताज़ा-दम सा हो गया

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