क़बा-ए-ज़र्द पहन कर वो बज़्म में आया...पढ़ें मुनीर नियाज़ी के शेर
बाब-ए-इल्तिजा के सिवा
ज़वाल-ए-अस्र है कूफ़े में और गदागर हैं, खुला नहीं कोई दर बाब-ए-इल्तिजा के सिवा
चाँद दमका हौज़
कोयलें कूकीं बहुत दीवार-ए-गुलशन की तरफ़, चाँद दमका हौज़ के शफ़्फ़ाफ़ पानी में बहुत
आहिस्ता आहिस्ता
बहुत ही सुस्त था मंज़र लहू के रंग लाने का, निशाँ आख़िर हुआ ये सुर्ख़-तर आहिस्ता आहिस्ता
झेलता जाता हूँ मैं
हूँ मकाँ में बंद जैसे इम्तिहाँ में आदमी, सख़्ती-ए-दीवार-ओ-दर है झेलता जाता हूँ मैं
मकान-ए-ख़ाक
चमक ज़र की उसे आख़िर मकान-ए-ख़ाक में लाई, बनाया साँप ने जिस्मों में घर आहिस्ता आहिस्ता
मैं फ़क़त ख़ुश्बू
दश्त-ए-बाराँ की हवा से फिर हरा सा हो गया, मैं फ़क़त ख़ुश्बू से उस की ताज़ा-दम सा हो गया
डरा देना चाहिए
इक तेज़ राद जैसी सदा हर मकान में, लोगों को उन के घर में डरा देना चाहिए
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