मुद्दत के बा’द उस ने जो की लुत्फ़ की निगाह...पढ़ें कैफ़ी आज़मी के शेर..
क़ाफ़िला तो चले
ख़ार-ओ-ख़स तो उठें रास्ता तो चले, मैं अगर थक गया क़ाफ़िला तो चले
हवा तो चले
चाँद सूरज बुज़ुर्गों के नक़्श-ए-क़दम, ख़ैर बुझने दो उन को हवा तो चले
ख़ुद-कुशी का हुनर
उसको मज़हब कहो या सियासत कहो, ख़ुद-कुशी का हुनर तुम सिखा तो चले
ईंटों की हुरमत
इतनी लाशें मैं कैसे उठा पाऊँगा, आप ईंटों की हुरमत बचा तो चले
कहाँ दफ़्न हूँ
बेलचे लाओ खोलो ज़मीं की तहें, मैं कहाँ दफ़्न हूँ कुछ पता तो चले
सुना करो मिरी जाँ
सुना करो मिरी जाँ इन से उन से अफ़्साने, सब अजनबी हैं यहाँ कौन किस को पहचाने
फूंके हुए ये वीराने
यहाँ से जल्द गुज़र जाओ क़ाफ़िले वालो, हैं मेरी प्यास के फूंके हुए ये वीराने
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