शाम-ए-फ़िराक़ अब न पूछ आई और आ के टल गई.. पढ़ें फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के शेर...
क़ुर्बतें
जुदा थे हम तो मयस्सर थीं क़ुर्बतें कितनी, बहम हुए तो पड़ी हैं जुदाइयाँ क्या क्या
मंज़िल
कटते भी चलो बढ़ते भी चलो बाज़ू भी बहुत हैं सर भी बहुत, चलते भी चलो कि अब डेरे मंज़िल ही पे डाले जाएँगे
इख़्तियार
उन्हीं के फ़ैज़ से बाज़ार-ए-अक़्ल रौशन है, जो गाह गाह जुनूँ इख़्तियार करते रहे
ख़ैर दोज़ख़
ख़ैर दोज़ख़ में मय मिले न मिले, शैख़-साहब से जाँ तो छुटेगी
रंग-ए-लब
अगर शरर है तो भड़के जो फूल है तो खिले, तरह तरह की तलब तेरे रंग-ए-लब से है
जाँ-नवाज़
मिन्नत-ए-चारा-साज़ कौन करे, दर्द जब जाँ-नवाज़ हो जाए
गुनाहगार-ए-नज़र
अदा-ए-हुस्न की मासूमियत को कम कर दे, गुनाहगार-ए-नज़र को हिजाब आता है
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