दर्द मिन्नत-कश-ए-दवा न हुआ..पढ़े मिर्जा गालिब की बेहतरीन शायरी..
ज़ुल्फ़
आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक, कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक
तमाशा
बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे, होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मिरे आगे
मयस्सर
बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना, आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसाँ होना
बुरा
दर्द मिन्नत-कश-ए-दवा न हुआ, मैं न अच्छा हुआ बुरा न हुआ
अरमान
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले, बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले
फ़ना
इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना, दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना
शर्म
काबा किस मुँह से जाओगे ग़ालिब, शर्म तुम को मगर नहीं आती
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