ख़तरे के निशानात अभी दूर हैं लेकिन...पढ़ें निदा फ़ाज़ली के शेर...
दिन सलीक़े से उगा
दिन सलीक़े से उगा रात ठिकाने से रही, दोस्ती अपनी भी कुछ रोज़ ज़माने से रही
बृन्दाबन के कृष्ण कन्हय्या
बृन्दाबन के कृष्ण कन्हय्या अल्लाह हू, बंसी राधा गीता गैय्या अल्लाह हू
बिखरी ज़ुल्फ़ों ने सिखाई
बिखरी ज़ुल्फ़ों ने सिखाई मौसमों को शाइरी, झुकती आँखों ने बताया मय-कशी क्या चीज़ है
ये काटे से नहीं कटते
ये काटे से नहीं कटते ये बाँटे से नहीं बटते, नदी के पानियों के सामने आरी कटारी क्या
सूरज को चोंच में लिए
सूरज को चोंच में लिए मुर्ग़ा खड़ा रहा, खिड़की के पर्दे खींच दिए रात हो गई
ऐसा नहीं ख़ुलूस न हो,
तमाम शहर में ऐसा नहीं ख़ुलूस न हो, जहाँ उमीद हो इस की वहाँ नहीं मिलता
बिखर न जाऊँ में
मिरे बदन में खुले जंगलों की मिट्टी है, मुझे सँभाल के रखना बिखर न जाऊँ में
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