हम परवरिश-ए-लौह-ओ-क़लम करते रहेंगे..पढ़ें फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के शेर..
राह में जचा
मक़ाम फ़ैज़ कोई राह में जचा ही नहीं, जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले
रक़म
हम परवरिश-ए-लौह-ओ-क़लम करते रहेंगे, जो दिल पे गुज़रती है रक़म करते रहेंगे
मसरूफ़-ए-इंतिज़ार
जानता है कि वो न आएँगे, फिर भी मसरूफ़-ए-इंतिज़ार है दिल
बेगाना
दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया, तुझ से भी दिल-फ़रेब हैं ग़म रोज़गार के
आरज़ू
ये आरज़ू भी बड़ी चीज़ है मगर हमदम, विसाल-ए-यार फ़क़त आरज़ू की बात नहीं
दिल
उठ कर तो आ गए हैं तिरी बज़्म से मगर, कुछ दिल ही जानता है कि किस दिल से आए हैं
परवरदिगार के
इक फ़ुर्सत-ए-गुनाह मिली वो भी चार दिन, देखे हैं हम ने हौसले परवरदिगार के
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