तुम्हारी याद के जब ज़ख़्म भरने लगते हैं.. पढ़ें फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की शानदार शायरी..
वस्ल
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा, राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
शाम
दिल ना-उमीद तो नहीं नाकाम ही तो है, लम्बी है ग़म की शाम मगर शाम ही तो है
बे-हिसाब
कर रहा था ग़म-ए-जहाँ का हिसाब, आज तुम याद बे-हिसाब आए
दिल
और क्या देखने को बाक़ी है, आप से दिल लगा के देख लिया
मोहब्बत
दोनों जहान तेरी मोहब्बत में हार के, वो जा रहा है कोई शब-ए-ग़म गुज़ार के
ज़ख़्म
तुम्हारी याद के जब ज़ख़्म भरने लगते हैं, किसी बहाने तुम्हें याद करने लगते हैं
फ़साने
वो बात सारे फ़साने में जिस का ज़िक्र न था, वो बात उन को बहुत ना-गवार गुज़री है
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