तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो...पढ़िए कैफ़ी आज़मी के दर्द भरे शेर
सलीक़ा
जो वो मिरे न रहे मैं भी कब किसी का रहा, बिछड़ के उनसे सलीक़ा न ज़िन्दगी का रहा
कफ़न
इन्साँ की ख़्वाहिशों की कोई इन्तिहा नहीं, दो गज़ ज़मीं भी चाहिए, दो गज़ कफ़न के बाद
बचपन
मेरा बचपन भी साथ ले आया, गाँव से जब भी आ गया कोई
सदियाँ
पाया भी उनको खो भी दिया चुप भी हो रहे, इक मुख़्तसर सी रात में सदियाँ गुज़र गईं
निशाँ
जो इक ख़ुदा नहीं मिलत तो इतना मातम क्यों, मुझे ख़ुद अपने क़दम का निशाँ नहीं मिलता
दीवाना
आज फिर टूटेंगी तेरे घर नाज़ुक खिड़कियाँ, आज फिर देखा गया दीवाना तेरे शहर में
क़ाफ़िला
ख़ार-ओ-ख़स तो उठें, रास्ता तो चले, मैं अगर थक गया, क़ाफ़िला तो चले
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