तेरा घर और मेरा जंगल भीगता है साथ साथ..पढ़ें परवीन शाकिर के शेर...
वो मुसाफ़िर
दिल अजब शहर कि जिस पर भी खुला दर इस का, वो मुसाफ़िर इसे हर सम्त से बर्बाद करे
उम्र तो आराम की थी
बोझ उठाते हुए फिरती है हमारा अब तक, ऐ ज़मीं माँ तिरी ये उम्र तो आराम की थी
जंग का हथियार
जंग का हथियार तय कुछ और था, तीर सीने में उतारा और है
सफ़र का इस्तिआरा
शब वही लेकिन सितारा और है, अब सफ़र का इस्तिआरा और है
आमद पे तेरी
आमद पे तेरी इत्र ओ चराग़ ओ सुबू न हों, इतना भी बूद-ओ-बाश को सादा नहीं किया
तन्हाई के डर से
ख़ुद अपने से मिलने का तो यारा न था मुझ में, मैं भीड़ में गुम हो गई तन्हाई के डर से
मुझ को जीता था
सिर्फ़ इस तकब्बुर में उस ने मुझ को जीता था, ज़िक्र हो न उस का भी कल को ना-रसाओं में
View More Web Stories